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Showing posts from August, 2009

निर्वासित

प्रताप दीक्षित वह पान की दुकान से सिगरेट लेते हुए या मेरे घर के सामने की गली में आते जाते अक्सर दिखाई दे जाते। मोहल्ले के पढ़े लिखे बेकार लड़के उनके आगे पीछे रहते। जिन्हें वह नौकरी के संबंध में सलाह देते। किसी से उसके इण्टरव्यू के संबंध में बात करते हुए, किसी को किसी कार्यालय में लीव-वेकैंसी के लिए प्रार्थना पत्रा देने को कहते। उनके बगल से निकलते हुए, जब कब, उनकी बातचीत के टुकड़े मेरे कानों में पड़ते। उनके आसपास युवाओं की अनुशासन बद्धता, शिष्टता और आज्ञाकारिता देखकर आश्चर्य होता। मेरे जैसे बेरोजगार युवक को स्वर्ग के देवदूत से कम नहीं प्रतीत होते। उनकी बातें गीता के वाक्य। परन्तु मैं अपने भीरू और दब्बू स्वभाव के कारण उनसे परिचय करने का साहस नहीं जुटा पाता। उनसे अपरिचित रह कर भी मैं उनके संबंध में बहुत कुछ सुन और जान चुका था, कि वे किसी बड़े कार्यालय में डायरेक्टर के स्टेनो हैं। बड़े-बड़े अधिकारियों से उनका परिचय है। किसी की नौकरी लगवाना, साक्षात्कार में सिफारिश करवाना उनके लिए बहुत सरल है। जाने कितने लोग उनकी सिफारिश से नौकरी पाकर मौज कर रहे हैं। इस पर भी वे बड़े ही सरल हृदय, दयालु और परोप

वाड्मय पत्रिका का लोकार्पण नासिरा शर्मा अंक

नासिरा शर्मा विशेषांक उपलब्ध मूल्य 100/ (डाक खचॅ अलग) पृष्ट 344 अनुक्रम सम्पादकीय नासिरा शर्मा : मेरे जीवन पर किसी का हस्ताक्षर नहीं डॉ. सुदेश बत्रा : नासिरा शर्मा - जितना मैंने जाना ललित मंडोरा अद्भुत जीवट की महिला नासिरा शर्मा अशोक तिवारी : तनी हुई मुट्ठी में बेहतर दुनिया के सपने शीबा असलम फहमी : नासिरा शर्मा के बहान अर्चना बंसल : अतीत और भविष्य का दस्तावेज : कुइयाँजान फजल इमाम : जीरो रोड में दुनिया की छवियां अमरीक सिंह दीप : ईरान की खूनी क्रान्ति से सबक़ सुरेश पंडित : रास्ता इधर से भी जाता है वेद प्रकाश : स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप डॉ. नगमा जावेद : जिन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया हैः जिन्दा मुहावरे डॉ. आदित्य : भारतीय संस्कृति का कथानक जीवंत अभिलेखः अक्षयवट एम. हनीफ़ मदार : जल की व्यथा-कथा कुइयांजान के सन्दर्भ में बन्धु कुशावर्ती : जीरो रोड का सिद्धार्थ प्रो. अली अहमद फातमी - एक नई कर्बला सगीर अशरफ : नासिरा शर्मा का कहानी संसार - एक दृष्टिकोण प्रत्यक्षा सिंहा : संवेदनायें मील का पत्थर हैं डॉ. ज्योति सिंह : इब्ने मरियम : इंसानी मोहब्बत का पैग़ाम देती कहानियाँ डॉ. अवध बिहारी : इंसा

तमाचा

प्रताप दीक्षित शाम को दफ्तर से लौटने पर देखा तो घर में बिजली नहीं थी। अक्सर ऐसा होने लगा था। जैसे-जैसे मौसम के तेवर बदलते, बिजली की आँख-मिचौली बढ़ती जाती। बिजली विभाग का दफ्तर न हुआ देश की सरकार हो गई। वह पसीने में लथपथ प्रतीक्षा करने लगा। और कोई चारा भी तो नहीं था। जब शहर का यह हाल है तो गाँवों में क्या होगा। इन कष्ट के क्षणों में भी उसे देश-समाज की चिन्ता थी। उसे अपने आप पर गर्व हुआ। कुछ देर बाद अंधेरा घिर आया। आ गई। अचानक एक उल्लास मिश्रित शोर उभरा। लाइट आ गई थी, जैसा कि अन्य घरों से आते प्रकाश से लग रहा था। सिवाय उसके यहाँ। अब उसे चिन्ता हुई। सामूहिक रूप से तो किसी कष्ट को भोगा जा सकता है। एक दूसरे के प्रति एक अव्यक्त सहानुभूति की धारा सबको एक सूत्रा में बाँधे रहती है। परन्तु ऐसी स्थिति में तो दूसरे से ईर्ष्या ही पैदा होती है। लगता है कि उसके यहाँ ही कुछ फॉल्ट है। शायद फ्यूज उड़ा हो। उसने फ्यूज देखा, वह सही था। उसने स्विच, बोर्ड हिलाए-डुलाए परन्तु परिणाम ज्यों का त्यों। वह थककर बैठ गया। पत्नी ने कहा कुछ करो न, हाथ पर हाथ रखकर बैठने से क्या होगा? वह परेशान हो गया। ये छोटे-मोटे काम, जि

अंतर्मन

SEEMA GUPTA अंतर्मन की , विवश व्यथित वेदनाएं धूमिल हुई तुम्हे भुलाने की सब चेष्टाएँ, मौन ने फिर खंगाला बीते लम्हों के अवशेषों को खोज लाया कुछ छलावे शब्दों के, अश्कों पे टिकी ख्वाबों की नींव, कुंठित हुए वादों का द्वंद , सुधबुध खोई अनुभूतियाँ , भ्रम के द्वार पर पहरा देती सिसकियाँ.. आश्वासन की छटपटाहट "और" सजा दिए मानसपट की सतह पर फ़िर विवश व्यथित वेदनाएं धूमिल हुई तुम्हे भुलाने की सब चेष्टाएँ,

गुमशुदा

प्रताप दीक्षित रघुवीर शरण के लिए ये अवकाश के क्षण थे। निश्चिंतता के भी। ऐसी स्थितियाँ कम ही होतीं। अधिकाँशतः खाली समय में, जिसकी इफ़रात होती, उनके हाथों में कागज और पेन रहता। चारों ओर छोटी-छोटी पर्चियों का ढेर लग जाता। वे एकाग्र मन से जाने क्या जोड़ा-घटाया करते। वर्तमान से कटे, आने वाले पलों से बेपरवाह। सामान्यतः बँधी-बँधायी आमदनी वालों का लेखा-जोखा मात्रा खर्चों की कतर-ब्योंत एक सीमित रहता है। उन्हें भी प्रतिमाह एक निर्धारित राशि प्राप्त होती। खर्र्चे भी लगभग निश्चित। परन्तु वे आय के हिसाब-किताब के अलावा, आकस्मिक स्रोतों से होनेवाली आमदनी की संभावना का ध्यान रखते। उन्हें लगता, जिन्दगी का क्या भरोसा? उन्हें कुछ हो गया तो! पक्षपात या हृदय का दौरा तो आज आम हो गया है। इसके अतिरिक्त नौकरी से निलम्बन की आशंका, बेटी के संभावित विवाह, पुत्रा के लिए एक अद्द नौकरी या रोजगार का जुगाड़। अनेकों समस्याएँ थीं, जहाँ एकमुश्त रकम की जरूरत पड़ सकती थी। वे अक्सर हिसाब फैलाते-प्राविडेण्ट फण्ड से अग्रिम पच्चीस हजार, बैंक की फिक्स्ड डिपॉजिट दस हजार, शेयर्स के...बचत खाते में शेष तीन सौ-कुल जोड़... जोड़ने